1408 से चल रही परंपरा: पाटजात्रा पूजा से 75 दिवसीय बस्तर दशहरे की शुरुआत, माता से मांगी रथ निर्माण की अनुमति
- देवी दंतेश्वरी से रथ निर्माण के लिए लकड़ी उपलब्ध कराने की पारंपरिक प्रार्थना
जगदलपुर | सदियों पुरानी परंपरा और गहन आस्था से जुड़ा बस्तर दशहरा पर्व गुरुवार, 24 जुलाई को पाटजात्रा पूजा के साथ विधिवत रूप से शुरू हो गया। हरियाली अमावस्या के दिन आयोजित इस पूजा में देवी दंतेश्वरी और वनदेवी से रथ निर्माण के लिए लकड़ी प्रदान करने की अनुमति मांगी गई, जो इस पर्व का प्रथम एवं अत्यंत पवित्र चरण माना जाता है।
श्री दंतेश्वरी मंदिर परिसर में आयोजित इस पूजा में माचकोट के जंगल से लाई गई साल वृक्ष की लकड़ी, जिसे स्थानीय बोली में ठुरलू खोटला कहा जाता है, को पूजन योग्य मानकर पवित्र किया गया। परंपराओं के अनुसार, यह वही लकड़ी होती है जिसे रथ निर्माण में पहली बार हथौड़ा के रूप में उपयोग किया जाता है।
रथ निर्माण की शुरुआत ठुरलू खोटला से
रथ निर्माण के लिए लाई गई पहली लकड़ी को झारउमरगांव के बढ़ई दलपति द्वारा पारंपरिक विधियों से पूजन किया गया। पूजा में गुड़, लाई, चना, पान पत्ता, मिठाई और विविध फूलों का उपयोग किया गया। परंपरा के अनुसार, पूजा के बाद सात मोंगरी मछलियों, एक अंडे और एक बकरे की बलि दी गई। साथ ही, महुए की शराब से तर्पण कर देवी से अनुग्रह की कामना की गई।
बुरी नज़र से बचाने के लिए ठोंकी गई कील
पूजन के बाद ठुरलू खोटला में कील ठोकने की परंपरा निभाई गई, जो बुरी नजर से बचाव के लिए की जाती है। यह परंपरा वर्षों से रथ निर्माण की शुभ शुरुआत के प्रतीक के रूप में निभाई जा रही है।
बस्तर दशहरा के प्रमुख पूजा विधान और तिथियाँ
बस्तर दशहरा केवल एक दिन का पर्व नहीं, बल्कि 75 दिनों तक चलने वाला विश्व का सबसे लंबा धार्मिक उत्सव है। इसमें अनेक पूजा विधान और सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजन होते हैं:
- 5 सितंबर – डेरी गड़ाई पूजा
- 21 सितंबर – काछनगादी पूजा
- 22 सितंबर – कलश स्थापना
- 23 सितंबर – जोगी बिठाई
- 24–29 सितंबर – नवरात्रि पूजन और फूल रथ परिक्रमा
- 29 सितंबर – बेल पूजा
- 30 सितंबर – महाअष्टमी और निशा जात्रा
- 1 अक्टूबर – कुवांरी पूजा, जोगी उठाई, मावली परघाव
- 2 अक्टूबर – भीतर रैनी पूजा
- 3 अक्टूबर – बाहर रैनी पूजा
- 4 अक्टूबर – काछन जात्रा एवं मुरिया दरबार
- 5 अक्टूबर – कुटुम्ब जात्रा (ग्राम देवी-देवताओं की विदाई)
- 7 अक्टूबर – मावली माता की डोली विदाई और दशहरा समापन
इतिहास में दर्ज परंपरा: वर्ष 1408 से चल रही विरासत
बस्तर दशहरा पर्व की शुरुआत वर्ष 1408 ई. में राजा पुरुषोत्तम देव द्वारा की गई थी। यह पर्व किसी युद्ध विजय पर नहीं, बल्कि आदिशक्ति देवी दंतेश्वरी की आराधना और जनजातीय संस्कृति के सम्मान में मनाया जाता है। दो मंजिला रथ पर देवी का छत्र विराजमान कर जन समुदाय द्वारा खींचा जाता है, जिसमें बस्तर की एकता और भक्ति शक्ति का प्रतीक झलकता है।
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जनप्रतिनिधियों और हजारों श्रद्धालुओं की उपस्थिति
पाटजात्रा पूजा में बस्तर दशहरा समिति के अध्यक्ष, विधायक किरण देव, महापौर संजय पांडे, कलेक्टर हरिस एस, अपर कलेक्टर सीपी बघेल, विभिन्न प्रशासनिक अधिकारी, मांझी-चालकी, सेवादार, गायता-पुजारी, नाईक-पाईक, और बड़ी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित रहे।
पाटजात्रा पूजा के साथ बस्तर दशहरा 2025 की भव्य शुरुआत हो चुकी है। अब आने वाले 75 दिनों तक जगदलपुर और पूरे बस्तर अंचल में श्रद्धा, परंपरा, संस्कृति और भक्ति का अद्वितीय संगम देखने को मिलेगा। यह पर्व न केवल छत्तीसगढ़ की, बल्कि भारत की सांस्कृतिक धरोहर का गौरवमयी प्रतीक है।